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म॒रुत्व॑न्तं हवामह॒ इन्द्र॒मा सोम॑पीतये। स॒जूर्ग॒णेन॑ तृम्पतु॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

marutvantaṁ havāmaha indram ā somapītaye | sajūr gaṇena tṛmpatu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

म॒रुत्व॑न्तम्। ह॒वा॒म॒हे॒। इन्द्र॒म्। आ। सोम॑ऽपीतये। स॒ऽजूः। ग॒णेन॑। तृ॒म्प॒तु॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:23» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में वायु के सहचारी इन्द्र के गुण उपदेश किये हैं-

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्य लोगो ! जैसे इस संसार में हम लोग (सोमपीतये) पदार्थों के भोगने के लिये जिस (मरुत्वन्तम्) पवनों के सम्बन्ध से प्रसिद्ध होनेवाली (इन्द्रम्) बिजुली को (हवामहे) ग्रहण करते हैं (सजूः) जो सब पदार्थों में एकसी वर्तनेवाली (गणेन) पवनों के समूह के साथ (नः) हम लोगों को (आतृम्पतु) अच्छे प्रकार तृप्त करती है, वैसे उसको तुम लोग भी सेवन करो॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि जिस सहायकारी पवन के विना अग्नि कभी प्रज्वलित होने को समर्थ और उक्त प्रकार बिजुली रूप अग्नि के विना किसी पदार्थ की बढ़ती का सम्भव नहीं हो सकता, ऐसा जानें॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ वायुसहचारीन्द्रगुणा उपदिश्यन्ते।

अन्वय:

हे मनुष्या यथाऽस्मिन् संसारे वयं सोमपीतये यं मरुत्वन्तमिन्द्रं हवामहे, यः सजूर्गणेनास्मानातृम्पतु समन्तात् तर्पयति तथा तं यूयमपि सेवध्वम्॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मरुत्वन्तम्) मरुतः सम्बन्धिनो विद्यन्ते यस्य तम्। अत्र सम्बन्धेऽर्थे मतुप्। तसौ मत्वर्थे। (अष्टा०१.४.१९) इति भत्वाज्जस्त्वाभावः। (हवामहे) गृह्णीमः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदं बहुलं छन्दसि इति शपः श्लुर्न। (इन्द्रम्) विद्युतम् (आ) समन्तात् (सोमपीतये) प्रशस्तपदार्थभोगनिमित्ताय (सजूः) समानं सेवनं यस्य सः। इदं जुषी इत्यस्य क्विबन्तं रूपं, समानस्य छन्दस्य० इति समानस्य सकारादेशश्च। (गणेन) वायुसमूहेन (तृम्पतु) प्रीणयति। अत्र लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थश्च॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्नैव कदाचिदपि सहकारिणा वायुना विनाऽग्निः प्रदीपयितुं शक्यते, न चैवंभूतया विद्युता विना कस्यचित् पदार्थस्य वृद्धिः सम्भवतीति वेद्यम्॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. वायूच्या साह्याखेरीज अग्नी प्रज्वलित होऊ शकत नाही. विद्युतरूपी अग्नीशिवाय कोणत्याही पदार्थाची वाढ होऊ शकत नाही, हे माणसांनी जाणावे. ॥ ७ ॥